हमारा प्रतापगढ़ : कांठल की दुर्गम गुफाओं में विराजित कामाता का सदियों पुराना शक्ति स्थल
मदन वैष्णव
प्रतापगढ़। काँठल का केसरपुरा यूँ तो हीरों की खान मिलने के कारण भारतवर्ष के पटल पर सुर्खियों में आया था, लेकिन यहाँ पहाड़ी गुफामंदिर में विराजित *कामाता* के सदियों पुराने शक्तिस्थल के कारण भी केसरपुरा प्रसिद्ध हो गया है । कामाता(कामाख्या देवी) शक्तिपीठ पर हरियाली अमावस्या पर मेला भरने लगा है , जिसका प्रबंधन ग्राम पंचायत खौरिया द्वारा किया जाता है । कामाता का स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। मैंने 1980 में पहली बार इस स्थान के बारे में सुना था , लेकिन दर्शनों का योग 2005 में बना । यहां 400 फीट ऊंची खड़े कटाव वाली पहाड़ी है । खड़े कटाव वाले हिस्से में तथा हड़प का खौरा की तरफ जाने वाले पहाड़ी कटाव में सैकड़ों की तादाद में छोटी-छोटी गुफाएं हैं । इनमें आदिमानव और शेर -चीतों का निवास रहा है। कुछ बहादुर युवकों ने इनमें से कुछ गुफाओं में जाने की कोशिश की , तो वहां पशुओं और मानव कंकालों के अवशेष देख कर डर के मारे लौट आये ! काँठल में पहाड़ों के बीच वनीली और गहरी गर्तों को खौरा कहा जाता है। हड़प का खौरा में हिंसक पशुओं से भरा इतना घना वन है कि इसके भीतर जाकर वापस लौटना कठिन है , जो भी भीतर जाता है, खौरा उसे हड़प कर जाता है , निगल जाता है। इस कारण इन घाटियों को 'हड़प का खौरा' कहा जाता है । कामाता वाली पहाड़ी के पश्चिम में खेड़ा नाहरसिंह माता नाम की हजारों वर्ष पुरानी प्राचीन बस्ती रही है। उत्तर की ओर दूसरी पहाड़ी पर *हरि-मंदरा* नाम की प्राचीन बस्ती रही है, जिसके खंडहर अभी भी प्राच्यवेत्ताओं को शोध के लिए आमंत्रित करते प्रतीत होते हैं ! थोड़ी दूरी पर चीताखेड़ा और जीरन की प्राचीन बस्तियां हैं । जीरन नाम जीर्ण का अपभ्रंश होकर प्राचीनता का परिचायक है। कामाता और हड़प का खौरा की पहाड़ी कंदराओं से निकलकर आदिमानव ने मालवा के खेड़ा नाहरसिंहमाता , चीताखेड़ा और जीरन के मैदानी इलाकों में अपनी बस्तियां बसाईं ! कामाता और हड़प का खौरा की पहाड़ियों में स्थित गुफाओं में पानी के प्राकृतिक स्रोत हैं, इस कारण ये गुफाएं आदिमानव का आश्रय स्थल रही हैं। केसरपुरा के मांगू सिंह चौहान ने भी गुफाओं में मानव और विभिन्न प्रकार के प्राणियों की प्राचीन अस्थियां बहुतायत में पाई जाने की ताईद की है। हिंसक पशुओं का निवास स्थल होने से इन कंदराओं- गुफाओं में सर्वेक्षणात्मक अध्ययन संभव नहीं हो पाया है। कुछ बरस पहले मध्यप्रदेश के भानपुरा में भी ऐसी ही कटावदार पहाड़ियों में आदिमानव के निवास के चिह्न खोजे गए हैं ।आदिमानव द्वारा प्राकृतिक रंगों और खड़ियों से गुफाओं की भीतरी दीवारों पर बनाये गये प्राचीनतम विश्वप्रसिद्ध शैलचित्र भानपुरा की जिन गुफाओं में पाये गये हैं, वे कामाता क्षेत्र से एक सौ किलोमीटर की परिधि में आते हैं । रावतभाटा के कुण्डाल क्षेत्र से लगाकर भानपुरा , जावद के सुखानंद जी तीर्थ स्थल होते हुए कटावदार पहाड़ियों की एक श्रृंखला जीरन , चीताखेड़ा के पास हड़प का खौरा होती हुई कामाता की पहाड़ी तक आती है, जो पश्चिम दिशा में जाखम तक चली जाती है। कुंडाल, मालवा और कांठल का यह मैदानी इलाका बाद में शैलाश्रयों में रह रहे आदिमानव का बस्ती क्षेत्र बना ।
सभ्य होने के बाद मानव ने प्रकृति की सत्ता स्वीकार की ।इसके चलते ही कामाता जैसे पहाड़ी शक्ति स्थल अस्तित्वमान हुए । मेरे क्लासफेलो मेरियाखेड़ी के ठाकुर लक्ष्मण सिंह ने तीन दशक पहले मुझे बताया था कि कामाता का स्थान मेरियाखेड़ी से 4 किलोमीटर दूर ही है । चढ़ाई करनी पड़ती है । खौरिया मिडिल स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक खड़ियाखेड़ी निवासी ओमप्रकाश शर्मा ने मुझे सावधान करते हुए कहा था कि कामाता शक्तिपीठ जाया तो जा सकता है ; मगर वहां आदमखोर तेंदुओं का खतरा रहता है । उस दौरान आदमखोर तेंदुओं ने बारस-तेरह आदिवासी बालिकाओं को अपना निवाला बना लिया था । आखिरकार केसरपुरा के हिम्मतवर मांगूसिंह चौहान को साथ लेकर मैं कामाता के थानक पर पहुंचा। कामाता का स्थान मेरी कल्पना से भी अधिक सुंदर निकला । इस स्थान का पैटर्न जावद के निकट सुखानंद जी तीर्थस्थल से मिलता जुलता है। ग्रीष्म ऋतु में तो कामाता में पानी का झरना सूख जाता है, लेकिन बरसात में गर्जना के साथ सौ फीट नीचे गिरता है । राज्य सरकार यदि तीर्थ विकास की योजना के तहत ऊपर पहाड़ी पर झील बनवा दें और वाटरफाल के नीचे अस्त-व्यस्त पड़ी चट्टानों को हटवा दे , तो झरना मनमोहक और दर्शनीय बन जाएगा ।तब यह स्थान बड़े पर्यटन स्थल का रूप ले सकता है । पहले कामाता जाने का सुगम मार्ग केसरपुरा होकर था। अब मेरियाखेड़ी होकर भी पहुँचमार्ग बना दिया गया है ।केसरपुरा से पहाड़ी पर होकर लगभग ढाई किलोमीटर रास्ता है , जिधर होकर यह रास्ता हमें कामाता मंदिर के ऊपर पहाड़ी के कटाव तक ले जाता है । यहां सीढ़ी से पचास-साठ फीट नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ चट्टानी दरारों और खोखलों के बीच छोटी सी गुफा में देवी कामाता ( कामाख्यादेवी) विराजमान हैं। पचास-साठ साल पहले देवी के इस स्थानक के बाहर पारस पीपल के दो विशाल पेड़ थे, जो यहां सदियों पहले किसी साधु ने उगाए थे। ये दोनों पेड़ ऊपर की ओर बढ़ कर आपस में इस भाँति मिल गए थे मानो दोनों ने मिलकर तोरण द्वार का निर्माण किया हो। पारस पीपल और हवा के घर्षण द्वारा बनाए गए तोरण द्वार के चिह्न अभी तक कामाता मंदिर की बाहरी चट्टानों पर दृष्टिगोचर होते हैं । पेड़ तो गिर चुके हैं लेकिन ठूँठ वहीं पड़े हुए हैं । पारस पीपलों के गिर जाने के बाद अब कामाता के स्थानक के दोनों और बरगद के पेड़ों ने सौंदर्यसृष्टि का जिम्मा उठा रखा है । बरगद के पेड़ भी सैकड़ों वर्ष पुराने हैं । चट्टानी गुफा के भीतर पतली दरारे हैं। यहां एक दरार में बांस का एक डंडा लगा रखा है । दरार में से यूं तो पानी बहकर बाहर नहीं आता , लेकिन बांस हिलाने पर बाल्टी भर पानी बाहर आ जाता है ।भरी गर्मियों में इस सोते में पानी के उपलब्ध रहते, कोई भी भक्त प्यासा नहीं लौटता । दिन में भी और रात्रि के समय भी जब वहाँ सुनसान होता है , तेन्दुए और अन्य जंगली जानवर यहाँ पानी पीने आते हैं।रात्रि में तो तेन्दुए अपना डेरा यहीं जमा लेते हैं । गुफा मंदिर के बाहर त्रिशूल गड़े हुए हैं और कुछ पिण्डियाँ हैं जिन पर सदियों पुराना सिन्दूर चढ़ाया हुआ है । मंदिर के बाहर शिवलिंग स्थापित है, इस कारण यहां बलि नहीं चढ़ाई जाती । लेकिन ऐसा सुनने में आया है कि मन्नत में बंधे हुए लोग बलि भी दे देते थे। बलि देते समय कामाता की मूर्ति और शिवलिंग के बीच पर्दा डाल दिया जाता था। अब कामाता शक्तिस्थल पर बड़े दल के साथ, पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था करने के बाद ही जाना चाहिए ।